
Political Parties: ब्लैक मनी को व्हाइट करने के तरीके और टैक्स‑हिसाब
चुनावी मौसम आते ही राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग पर सियासत तेज हो जाती है। सवाल अक्सर यही उठता है कि पार्टियों के पास करोड़ों रुपये कहां से आते हैं और वे उसे टैक्स के दायरे में कैसे लाते हैं। कई बार यह पैसा मूलतः काला होता है, जिसे चंदे और उपलब्ध कानूनी प्रावधानों के सहारे सफेद दिखा दिया जाता है।
कैसे हो जाता है ब्लैक से व्हाइट
भारतीय कानून, विशेषकर आयकर अधिनियम की धारा 13A आदि प्रावधानों के कारण राजनीतिक पार्टियों को कुछ कर‑छूट मिलती है — बशर्ते वे चंदे‑रसीद का लेखा‑जोखा रखें और नियमों का पालन करें। छोटे नकद दान (नियमित प्रावधानों के अनुसार निश्चित सीमा से कम) देते समय दाता का नाम अनिवार्य न बताने का प्रावधान भी कुछ हद तक पारदर्शिता कम कर देता है। इसके चलते बड़े रकम को छोटे‑छोटे हिस्सों में तोड़कर नकद दान के रूप में दिखाना, या लेखे में छूट के नियमों का उपयोग कर वैधता का चित्र पेश करना आम रणनीतियाँ बन जाती हैं।
बैंकिंग और इलेक्टोरल बॉन्ड का रोल
हाल के वर्षों में दान देने के तरीकों में बैंकों और बॉन्ड के माध्यम से भी बदलाव आया है — उदाहरण के तौर पर इलेक्टोरल बॉन्ड जैसी स्कीमें जो बैंकिंग चैनल से दान कराती हैं। यह तरीका पारंपरिक नकदी लेन‑देनों की जगह लेता है, पर आलोचना यह रही है कि इससे दाताओं की पहचान सार्वजनिक नहीं होती, जिससे पारदर्शिता पूरी तरह सुनिश्चित नहीं हो पाती।
टैक्स कब लगता है?
कानूनी रूप से यदि कोई राजनीतिक दल निर्धारित नियमों और प्रकटीकरण आवश्यकताओं का पालन नहीं करती है — यानी आय‑व्यय का सही विवरण चुनाव आयोग व आयकर विभाग को नहीं दिया जाता — तो उस आय पर कर और दंड लग सकता है। इसलिए पार्टियाँ लेखा‑परीक्षा और प्रकटीकरण की शर्तों का पालन दिखाकर भी बड़े पैमाने पर फंडिंग को वैधता प्रदान कर सकती हैं।

