हिमाचल के कांगड़ा के देवी मंदिर में सदियों से लगातार नौ ज्योत जल रही हैं। इन ज्योतियों का सोर्स आज तक पता नहीं चला है। अकबर ने भी यहां की अखंड ज्योति को बुझाने की कोशिश की, लेकिन नहीं बुझा पाया तो उसके मन में श्रद्धा जागी। अकबर ने देवी को सोने का छत्र चढ़ाया, लेकिन वो किसी और धातु में बदल गया। छत्र किस धातु में बदला, ये आज तक पता नहीं चल पाया।
हम बात कर रहे हैं ज्वाला देवी शक्तिपीठ की..
मंदिर के अधिकारी अनिल कुमार सोंधी के मुताबिक, नवरात्रि के दो दिनों में यानी रविवार और सोमवार को कुल 13 लाख 45 हजार रुपए का दान आया है। इसके अलावा 9 ग्राम सोना और 490 ग्राम चांदी भक्तों ने दान की है।

यहां दो दिन से बारिश का मौसम बना हुआ है। आज सुबह से भी हल्की बारिश हो रही थी, लेकिन अब मौसम खुल गया है, धूप निकल आई है। मंदिर में हवन-पूजन चल रहे हैं। भक्तों की लंबी कतार दिखाई दे रही है।
पौराणिक कथाओं के मुताबिक, यहां देवी सती की जीभ गिरी थी। बाद में कांगड़ा की पहाड़ी पर ज्योति रूप में देवी प्रकट हुईं। सबसे पहले मां के दर्शन यहां पशु चरा रहे ग्वालों ने किए थे। तब से आज तक ये ज्योति जल रही है।
यहां नवरात्रि की शुरुआत झंडा रस्म और कन्या पूजन से हुई। सुबह 5 बजे कपाट खुलने के बाद मंगला आरती हुई।
रात को 10 बजे शयन आरती के बाद कपाट बंद होंगे। नवरात्रि के छठे, सातवें और आठवें दिन मंदिर 24 घंटे खुला रहेगा। नौवें दिन हवन और कन्या पूजन होगा।
नौ दिनों तक यहां दिन में पांच बार आरती होती हैं और इनमें अलग-अलग भोग लगते हैं। सुबह की पहली बड़ी आरती में मालपुए, दूसरी में पीले चावल और दोपहर में दाल-चावल चढ़ाते हैं। रात में होने वाली बड़ी आरती में देवी को मिश्री और दूध का भोग लगता है।
यहां 100 साल पहले तक थी पंचबलि की परंपरा
करीब 100 साल पहले तक ज्वाला देवी में पंचबलि की परंपरा थी। इनमें भेड़, भैंसे, बकरे, मछली और कबूतर की बलि दी जाती थी, लेकिन बाद में ये प्रथा बंद कर दी गई। अब इनकी जगह पीले चावल और उड़द की वड़ी का भोग लगाया जाता है।