भारत में तनाव और चुनाव का रिश्ता सालों पुराना है. बीते 30 सालों में ही चुनाव से पहले सांप्रदायिक हिंसा की 7 बड़ी घटनाएं हुईं, जिसने देश की दशा और दिशा बदल दी.
चुनावी साल में देश के कई हिस्से सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में है. मुंबई के मीरा रोड के बाद अब उत्तराखंड का हल्द्वानी हिंसा की आग में झुलस रहा है. हालांकि, यह पहला मौका नहीं है जब चुनाव से पहले देश का कोई हिस्सा सांप्रदायिक हिंसा और दंगे की ज़द में है.
भारत में तनाव और चुनाव का रिश्ता सालों पुराना है. बीते 30 सालों में ही चुनाव से पहले सांप्रदायिक हिंसा की 7 बड़ी घटनाएं हुई है, जिसने देश की दशा और दिशा बदल दी. ऐसे में हल्द्वानी और मीरा रोड की हिंसा को सीधे तौर पर 2024 लोकसभा चुनाव से जोड़ा जा रहा है.
पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर का दावा है, ”हल्द्वानी जैसी घटनाएं टेस्ट एंड ट्रायल हैं. बीजेपी चाहती है कि मुसलमान इस तरह की घटनाओं पर रिएक्ट करें, जिसका उसे चुनाव में फायदा हो. चुनाव के वक्त सांप्रदायिक हिंसा मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए कराए जाते हैं.”
उत्तराखंड के हल्द्वानी में क्या हुआ?
स्थानीय लोगों के मुताबिक, 1935 में ब्रिटिश शासन के दौरान ही यहां की जमीनें 30 साल के लिए लीज पर दी गई थी. इस लीज सिस्टम का फायदा सभी वर्गों ने उठाया. 1997 में लीज रिन्यूअल का काम बंद कर दिया गया.
स्थानीय लोगों का कहना है कि बनभूलपुरा इलाके में स्थित एक मदरसे के कुछ हिस्सों का विस्तार किया जा रहा था, जिसे पुलिस-प्रशासन ने तुड़वा दिया. पुलिस जब बुल्डोजर लेकर आई, तब स्थिति बिगड़ गई.
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक पुलिस और अतिक्रमण हटाने वाले दस्ते पर पहले पथराव की घटना हुई, जिसके बाद हिंसा फैल गई और 2 लोगों की मौत हो गई.
हल्द्वानी के स्थानीय विधायक सुमित हृदयेश ने कहा कि इस मामले में कोर्ट में सुनवाई होनी थी, लेकिन उससे पहले ही प्रशासन के कुछ उतावले अधिकारियों ने यह कार्रवाई कर दी.
हिंसा का चुनावी कनेक्शनः किसे मिलता है फायदा?
सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर दंगे का चुनावी फ़ायदा किसे मिलता है? इसे विस्तार से समझने के लिए हमने एनालिसिस किया है. आइए जानते हैं-
- बाबरी हिंसा के बाद मजबूत हो गई बीजेपी- 1992 में देश के कई हिस्सों में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हिंसा भड़की. इस हिंसा में सैंकड़ों लोगों की जान गई. हिंसा में कौन लोग शामिल थे, इसकी जानकारी तो नहीं लग पाई, लेकिन इसका फायदा बीजेपी को जरूर मिला. 1991 लोकसभा चुनाव में 120 सीटें जीतने वाली बीजेपी को 1996 में 161 सीटों पर जीत मिली.
सांप्रदायिक हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित महाराष्ट्र, राजस्थान जैसे राज्यों के चुनाव में भी बीजेपी को फायदा मिला.
- मुस्तफा मस्जिद में हिंसा और दिल्ली की सरकार- 1992-93 में राजधानी दिल्ली के पुराने इलाके में एक अफवाह की वजह से सांप्रदायिक हिंसा भड़क गई. हिंसा में 50 से ज्यादा लोग मारे गए. हिंसा की मुख्य वजह- मुस्तफा मस्जिद थी.
केंद्र में उस वक्त कांग्रेस की सरकार थी और दिल्ली बीजेपी के नेताओं ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया. 1993 विधानसभा चुनाव में बीजेपी को बड़ी जीत मिली. बीजेपी 49 सीटों पर जीत हासिल कर पहली बार दिल्ली में सरकार बनाने में कामयाब हो गई.
- गोधरा के बाद गुजरात में बीजेपी की जड़ें जमी- 2002 में गुजरात के गोधरा में सांप्रदायिक हिंसा घटित हुई. इस हिंसा में 1000 से ज्यादा लोग मारे गए. घटना के वक्त वहां बीजेपी की सरकार थी और नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे.
गोधरा कांड के 7 महीने बाद विधानसभा के चुनाव हुए. इस चुनाव में बीजेपी को 127 सीटों पर जीत मिली. यह आंकड़ा 1998 के 117 से 10 ज्यादा था.
गोधरा कांड के बाद बीजेपी कभी भी गुजरात में चुनाव नहीं हारी है. वर्तमान में गुजरात को बीजेपी का मजबूत गढ़ कहा जाता है.
- वड़ोदरा में 2 समुदाय के बीच झड़प हुई- 2006 में गुजरात के वडोदरा में 2 समुदाय के बीच हिंसक झड़प हुई. झड़प की वजह एक दरगाह को हटाना था. इस हिंसा में 8 लोगों की जान चली गई.
42 लोग हिंसा में घायल हुए. मामले में खूब राजनीति हुई और 18 लोगों पर एफआईआर दर्ज की गई.
इस हिंसा के बाद हुए 2007 के गुजरात विधानसभा चुनाव में बीजेपी को फायदा मिला. वड़ोदरा और आसपास के जिलों की सीटों पर बीजेपी ने एकतरफा जीत हासिल की.
- इंदौर में दंगा और बीजेपी की सत्ता रिपीट – 2008 के शुरुआत में ही सरकार ने कश्मीर में अमरनाथ मंदिर के जमीन आवंटन को रद्द करने का फैसला किया, जिसका इंदौर के लोगों ने जमकर विरोध किया. यह विरोध-प्रदर्शन धीरे-धीरे सांप्रदायिक हिंसा में तब्दील हो गया. इस हिंसा में 8 लोग मारे गए.
हिंसा के बाद हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को फायदा मिला. इंदौर के 10 में से 7 सीटों पर बीजेपी ने जीत हासिल की. इतना ही नहीं, आसपास के जिलों में भी बीजेपी का प्रदर्शन बेहतरीन रहा और शिवराज के नेतृत्व में बीजेपी सत्ता में लौट आई.
- मुजफ्फरनगर हिंसा ने बदल दी यूपी की दशा और दिशा- 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे ने यूपी की सियासत ही बदल दी. यह दंगा करीब 2 महीने तक रूक-रूक कर चलता रहा. सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक इस हिंसा में 60 से ज्यादा लोग मारे गए. हिंसा के 8 महीने बाद लोकसभा के चुनाव हुए और बीजेपी ने पश्चिमी यूपी में क्लीन स्वीप कर लिया. यहां लोकसभा की कुल 26 सीटें हैं.
मुजफ्फरनगर हिंसा ने बीजेपी को 2017 के चुनाव में भी फायदा पहुंचाया और बीजेपी ने पश्चिमी यूपी में एकतरफा जीत दर्ज की.
- नादिया दंगा के बाद बंगाल में बीजेपी मजबूत हुई- 2015 में पश्चिम बंगाल के नादिया जिले में पहली बार सांप्रदायिक हिंसा भड़की. इस हिंसा में 4 लोग मारे गए, जबकि 8 लोग गंभीर रूप से घायल हुए.
हिंसा के दौरान दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर गोले फेंके और इलाके के ज्यादातर घर तबाह कर दिए गए.
2015 से 2019 के बीच बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा की 5 घटनाएं घटी. बीजेपी ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया और बंगाल सरकार पर तुष्टिकरण का आरोप लगाया.
2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को फायदा मिला और पहली बार बीजेपी वहां पर 18 सीटें जीतने में कामयाब हो गई.
दंगे की वजह से बिहार-यूपी में कांग्रेस निपटी
दंगे से जहां बीजेपी को सियासी फायदा मिला, वहीं कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों को उससे नुकसान उठाना पड़ा. मसलन, भागलपुर दंगे के बाद बिहार से कांग्रेस पूरी तरह निपट गई. वही हाल हाशिमपुरा दंगे के बाद पार्टी की यूपी में हुई. इन दोनों दंगे के वक्त राज्य में कांग्रेस की सरकार थी.
2013 में मुजफ्फरनगर दंगे ने तत्कालीन सत्ताधारी समाजवादी पार्टी को काफी नुकसान पहुंचाया. सपा इसके बाद पश्चिमी यूपी में साफ होती चली गई.
हाल ही में दंगे का नुकसान कांग्रेस को राजस्थान विधानसभा चुनाव में भी उठाना पड़ा. साल 2022 में राजस्थान का उदयपुर, भीलवाड़ा और जोधपुर जिला सांप्रदायिक हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित रहा.
2023 के विधानसभा चुनाव में इसका असर भी देखने को मिला. अशोक गहलोत के गृह जिले होने के बावजूद 2023 में जोधपुर की 80 प्रतिशत सीटें कांग्रेस हार गई. भीलवाड़ा में तो पार्टी पूरी तरह साफ हो गई.
5 साल में सांप्रदायिक हिंसा और मुसलमानों की स्थिति
दिसंबर 2022 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में बताया था कि 2017 से 2021 तक सांप्रदायिक हिंसा के 2900 मामले सामने आए. गृह मंत्रालय के मुताबिक सांप्रदायिक हिंसा के सबसे ज्यादा मामला 2020 में आया है.
मंत्रालय के मुताबिक 2017 में 723, 2018 में 512, 2019 में 438, 2020 में 857 और 2021 में 378 केस सामने आए हैं.
अंतरराष्ट्रीय संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले कुछ सालों में हिंदुओं के त्यौहार के मौकों पर सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है. इस तरह की हिंसा के पीछे राजनीतिक संरक्षण की भावना से लैस बेखौफ भीड़ रहती है.
काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक बीजेपी के सत्ता में आने के बाद मुसलमानों के साथ भेदभाव की कई घटनाएं देखी गई. सत्ता में हिस्सेदारी का मसला हो या योजना के लाभ लेने का, हर जगह मुसलमानों को पीछे किया गया.
वर्तमान में देश के 7 बड़े पदों पर एक भी मुसलमान नहीं हैं. इतना ही नहीं देश के किसी भी राज्य में मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं है और ना ही 15 राज्यों में एक भी मुस्लिम कैबिनेट मंत्री हैं.
ह्यूमन राइट्स वॉच के मुताबिक उत्तर प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों में बुल्डोजर प्रवृति ने भी मुसलमानों को दबाने का काम किया है. संस्था का कहना है कि हिंदुत्व के एजेंडे को लागू करने के लिए इस तरह के कृत किए जा रहे हैं.