कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सरकार से सवाल पूछा है कि इस बिल के लागू होने में कितना वक्त लगेगा? सोनिया के सवाल के पीछे 3 मुख्य वजह है. आइए इसे विस्तार से जानते हैं
27 साल के लंबे इंतजार के बाद मोदी सरकार ने 5 पन्ने का महिला आरक्षण बिल लोकसभा में पेश कर दिया है. संविधान के 128वें संशोधन के तहत केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 239AA, अनुच्छेद 330A, अनुच्छेद 332A और अनुच्छेद 334 A में बदलाव का प्रस्ताव पेश किया है. इस संशोधन के बाद लोकसभा और सभी विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का अधिकार मिल जाएगा.
हालांकि, इसके तुरंत लागू होने की गुंजाइश कम है. इसकी मुख्य वजह संशोधित प्रस्ताव का एक पैराग्राफ है, जिसमें कहा गया है कि यह बिल संसदीय सीटों के परिसीमन के बाद ही अमल में आएगा. लोकसभा के बाद ही इसे विधानसभा में लागू होने की बात कही गई है.
सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने सरकार के मंशा पर सवाल उठाया है. उन्होंने कहा है कि जब जनगणना और परिसीमन के बिना महिला आरक्षण बिल लागू हो ही नहीं सकता है, तो सरकार ने इसे पेश ही क्यों किया है?
सवाल कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी उठाया है. सोनिया गांधी ने कहा है कि महिलाओं को 13 साल तक इंतजार करना पड़ा है. सरकार अब इसे तुरंत लागू करने के बजाय बाद में लागू करने का आश्वासन दे रही है.
सोनिया ने लोकसभा में कहा- मैं पूछना चाहती हूं कि इस बिल के लागू होने में कितना वक्त और लगेगा?
महिला आरक्षण जल्द लागू होना आसान नहीं, क्यों?
पहला विवाद जनगणना का है- भारत में 2021 की जनगणना अब तक नहीं हुई है. जनवरी 2023 में इसको लेकर केंद्र सरकार ने आखिरी बार एक नोटिफिकेशन जारी किया था. इसके मुताबिक सितंबर 2023 तक जनगणना नहीं कराने की बात कही गई थी.
सितंबर अब बीतने को है, लेकिन दशकीय जनगणना को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं है. क्षेत्रीय पार्टियों का आरोप है कि जातीय आधारित जनगणना की मांग की वजह से यह लगातार टल रही है.
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के मुताबिक बीजेपी सरकार न जनगणना के पक्ष में है न जातिगत गणना के पक्ष में. जानकारों का कहना है कि बिना जातिगत गणना के यदि सरकार जनगणना कराती है, तो उसे ओबीसी समुदाय की नाराजगी झेलनी पड़ सकती है.
बीजेपी में नरेंद्र मोदी के उदय के बाद ओबीसी समुदाय पार्टी का कोर वोटर बन गया है. लोकसभा चुनाव 2019 के बाद सीएसडीएस और लोकनीति ने एक सर्वे किया. इसके मुताबिक 2019 में 44 फीसदी ओबीसी ने बीजेपी को वोट दिया. 10 फीसदी ओबीसी बीजेपी के साथ गठबंधन में शामिल पार्टियों के समर्थन में मतदान किया.
कांग्रेस के पक्ष में 15 फीसदी ओबीसी ने वोट किया, जबकि कांग्रेस के सहयोगियों को सिर्फ 7 फीसदी ओबीसी समुदाय का समर्थन मिला.
इतना ही नहीं, हिंदी बेल्ट में ओबीसी समुदाय ने बीजेपी के पक्ष में एकतरफा वोट किया. 2019 में हिंदी हार्टलैंड की 225 सीटों में से 203 सीटों पर बीजेपी को जीत मिली थी.
ऐसे में जातिगत गणना के बिना जनगणना कराने का रिस्क बीजेपी फिलहाल शायद ही ले.
दूसरा विवाद परिसीमीन का है- भारत में लोकसभा और विधानसभा सीटों की सीमा निर्धारण की प्रक्रिया को परिसीमन कहा जाता है. संविधान के अनुच्छेद-82 में परिसीमन का जिक्र किया गया है. राष्ट्रपति के आदेश पर चुनाव आयोग के देखरेख में परिसीमन का काम होता है.
अनुच्छेद 82 के मुताबिक हर 10 साल पर जब जनसंख्या का डेटा आ जाए, तो सीटों के निर्धारण पर विचार किया जा सकता है. 2002 में परिसीमन को लेकर संसद में एक कानून पास किया गया था, जिसमें कहा गया था कि 2026 से पहले परिसीमन पर विचार नहीं किया जाएगा.
वर्तमान में परिसीमन को लेकर 2 विवाद हैं.
- परिसीमन जनसंख्या को आधार बनाकर ही अब तक किया जाता रहा है. दक्षिण के राज्य अब इसके विरोध में है. डीएमके ने दिसंबर 2022 में पत्र लिखकर इसका विरोध भी जताया था. पार्टी का कहना था कि जनसंख्या के आधार पर अगर परिसीमन होगा, तो उत्तर के मुकाबले दक्षिण के राज्यों में सीटें घट जाएंगी.
डीएमके का कहना है कि उत्तर भारत के राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण को अभियान को ठीक ढंग से लागू नहीं किया. इसलिए उनकी संख्या अधिक है. पार्टी का कहना है कि कामों में लापरवाही बरतने वालों को भी ईनाम कैसे मिल सकता है?
मिलन वैष्णव और जैमी हिंटसन ने साल 2019 में ‘भारत में प्रतिनिधित्व का उभरता संकट’ नाम से एक शोध पत्र जारी किया. दोनों शोधकर्ताओं ने मैकमिलन थ्योरी का हवाला देते हुए कहा है कि अगर किसी भी राज्य की सीटों की संख्या कम नहीं करनी है तो आनुपात के मुताबिक लोकसभा में कुल सीटें 848 होनी चाहिए.
इसमें आगे कहा गया कि परिसीमन में जनसंख्या का सिद्धांत लागू होता है, तो उत्तर भारत के राज्यों में 32 से अधिक सीटें बढ़ सकती हैं. इसके मुकाबले दक्षिण भारत के राज्यों में लोकसभा की 24 सीटें कम हो सकती हैं.
- राजनीतिक विश्लेषक योगेद्र यादव के मुताबिक परिसीमन कब होगा, यह फाइनल नहीं है. यादव कहते हैं- 2029 के चुनाव में भी महिला आरक्षण बिल लागू होना मुश्किल है.
यादव के संवैधानिक नियमों का हवाला देते हुए कहते हैं- परिसीमन का काम 2031 के बाद शुरू हो सकता है, जो कम से कम 4 साल तक चलेगा. पिछली बार 5 साल में परिसीमन का काम पूरा हुआ था.
अगर ऐसा होता है, तो महिला आरक्षण बिल 2039 के लोकसभा चुनाव में पूरी तरह लागू हो पाएगा.
इधर, कांग्रेस का कहना है कि सरकार ने अनुच्छेद 333 A को जोड़कर इस पर सस्पेंस बढ़ा दिया है. 2010 में जो राज्यसभा से बिल पास हुआ था, उसमें इस अनुच्छेद को शामिल नहीं किया गया था.
सीट रिजर्व का फॉर्मूला निकालना भी आसान नहीं- लोकसभा में महिलाओं के लिए कौन सी सीट रिजर्व की जाएगी, इसका फॉर्मूला निकालना आसान नहीं होगा. दलित कोटे की सीट रिजर्व का विवाद पहले से ही चला आ रहा है.
सीट रिजर्व फॉर्मूले में भी 2 विवाद हैं. पहला, क्या लोकसभा में सीट राज्य के आधार पर रिजर्व किया जाएगी? दूसरा, क्या एससी-एसटी कोटे भी महिलाओं के लिए सीटों को आरक्षित किया जाएगा?
इसके अलावा, सीट रिजर्व का विवाद राजनीतिक मुद्दा भी बन सकता है. 2008 में परिसीमन की वजह से ही सोमनाथ चटर्जी, शिवराज पाटिल जैसे दिग्गज नेताओं को अपनी पारंपरिक सीट गंवानी पड़ी थी.